Low Income Suicide Cases: राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के नए आंकड़ों के बाद एक परेशान करने वाला रुझान सामने आया है. दरअसल 2023 में दिल्ली में आत्महत्या से मरने वालों में से आधे से ज्यादा लोगों की सालाना कमाई ₹1 लाख से भी कम थी. इन आंकड़ों के बाद आर्थिक तंगी और मानसिक स्वास्थ्य के बीच का बड़ा संबंध सामने आया है. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि कैसे आर्थिक अस्थिरता लोगों को निराशा की तरफ धकेल रही है. क्या कहते हैं आंकड़े 2023 में दिल्ली में 3131 आत्महत्याएं दर्ज की गईं.
इनमें से 1590 लोगों की मासिक कमाई ₹8300 से भी कम थी. आपको बता दें कि यह नंबर कई क्षेत्रों के न्यूनतम वेतन से भी कम है. आंकड़ों से इस बात का पता चला है कि 765 लोग पूरी तरह से बेरोजगार थे. लेकिन सिर्फ 241 मामलों में बेरोजगारी को इसकी वजह बताया गया है, जबकि 24 मौतें गरीबी और 36 दिवालियापन या फिर कर्ज से जुड़ी थी. इनमें से 513 आत्महत्या किस वजह से हुईं इसका कारण किसी को नहीं पता.
क्या है आत्महत्या का पैटर्न यह आर्थिक पैटर्न कोई नया नहीं है. अगर 2022 की बात करें तो 3417 लोगों ने आत्महत्या की थी जिसमें से 1660 की सालाना आय एक लाख रुपए से कम थी. इनमें से 773 बेरोजगार थे. 2021 के आंकड़े भी कुछ इसी तरह हैं. 2021 में 2840 मौतें हुई हैं, जिनमें 1424 की आय ₹1 लाख से कम थी.
देश की आर्थिक वास्तविकता राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की 2023-24 की रिपोर्ट के मुताबिक घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के अनुसार भारत का औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में ₹4,122 और शहरी क्षेत्र में ₹6,996 रहा है. हालांकि पिछले सालों की तुलना में थोड़ा सुधार नजर आता है. ग्रामीण औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय 9. 3% और शहरी औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय में 8. 3% की वृद्धि हुई है.
इससे यह पता चलता है कि शहरी-ग्रामीण अंतर 2011-12 के 83. 9% से घटकर 69. 7% रह गया है. हालांकि यह औसत अभी भी देश के नाजुक आर्थिक ढांचे की तरफ इशारा करता है. यहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा भोजन, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी जरूरी चीजों को पूरा करने के लिए भी संघर्ष कर रहा है.
बढ़ती लागत का बोझ राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि गैर खाद्य व्यय, जैसे की आवास, परिवहन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी चीजों पर खर्च अब घरेलू बजट पर हावी हो रहा है. अगर नंबर में बात करें तो ग्रामीण क्षेत्रों में यह 53% और शहरी क्षेत्र में 60% है. जैसे-जैसे जरूरी खर्च आमदनी की तुलना में तेजी से बढ़ रहे हैं आर्थिक तंगी और भी गहराती जा रही है. इसका सबसे ज्यादा असर कम आय वाले लोगों पर पड़ रहा है जो पहले से ही तंगी में जी रहे हैं. जो व्यक्ति महीने के मात्र ₹8000 कमा रहा है उसके लिए एक छोटी सी मेडिकल इमरजेंसी या फिर नौकरी छूटना भी एक संभव स्थिति में धकेल सकता है.
लगातार बढ़ता कर्ज, नौकरी की असुरक्षा और सामाजिक दबाव का सीधा असर डिप्रेशन और निराशा के रूप में सामने आता है. ये ऐसी वजह बन जाती हैं जो आगे जाकर आत्महत्या की संभावना को बढ़ाती हैं. एक बड़ा संकट वैसे तो आधिकारिक रिपोर्ट पारिवारिक समस्याओं या फिर मानसिक बीमारी जैसी वजहों को आर्थिक संकट से अलग श्रेणी में रखती हैं लेकिन उनके बीच की वह बारीक रेखा काफी ज्यादा धुंधली है. पैसे की तंगी सिर्फ जेब पर असर नहीं डालती बल्कि यह सम्मान को भी कम करती है और साथ ही भावनात्मक अलगाव पैदा करती है. इस वजह से मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ने लगती हैं.
सामने आए आंकड़े सिर्फ आंकड़े नहीं है बल्कि यह आर्थिक मनोवैज्ञानिक संकट की एक बड़ी चेतावनी है.








