नेपाल में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उसने पूरे दक्षिण एशिया का ध्यान खींच लिया. सोशल मीडिया वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने के सरकारी आदेश ने युवाओं (Gen-Z) के गुस्से को भड़का दिया. Gen-Z उन्हें कहते हैं, जो डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपनी आवाज उठाने और वैश्विक दुनिया से जुड़ने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं. ऐसे लोग सरकार के फैसले को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला मान रहे थे. आंदोलन का असर ये हुआ कि प्रदर्शनकारियों ने संसद भवन तक को फूंक डाला. इससे सरकार को करोड़ों का नुकसान होने का अंदेशा है. इसको बनाने में 43.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लगात लगी थी. इसके अलावा कई सारे ऐसे प्रोजेक्ट हैं, जो दूसरे देशों की ओर से नेपाल में चल रहे है. उन प्रोजेक्ट्स पर भी प्रदर्शन का असर देखने को मिलेगा. Gen-Z के हिंसक प्रदर्शन का नुकसान सीधे तौर पर नेपाल की अर्थव्यवस्था पर देखने को मिल सकता है.
नेपाल में विरोध प्रदर्शन का असर ये हुआ कि सरकार ने सोशल मीडिया बैन करने वाला फैसला कुछ ही समय बाद वापस ले लिया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. यह सिर्फ एक तकनीकी मुद्दा नहीं था. यह दशकों से मन में भरा हुआ असंतोष था, जो अचानक फट पड़ा. लोग कह रहे थे कि सोशल मीडिया प्रतिबंध सिर्फ एक बहाना है, असली वजह लंबे समय से चला आ रहा भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता और बेरोजगारी है. स्थिति तब और बिगड़ गई जब सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों को डराने की कोशिश की. हिंसा में कम से कम 22 लोगों की मौत हो गई. इसके बाद प्रधानमंत्री केपी ओली को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा.
नेपाल की राजनीति में अस्थिरता की जड़े
नेपाल का राजनीतिक इतिहास बहुत ही उथल-पुथल से भरा रहा है. 1951 में जब देश ने राजतंत्र से लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ाया तो उम्मीद थी कि स्थिरता आएगी, लेकिन इसके बाद कई बार राजतंत्र ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया. 1990 के दशक में माओवादी विद्रोह ने नेपाल की राजनीति को पूरी तरह बदल दिया. 2006 में राजतंत्र खत्म हुआ और 2008 में माओवादी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरे, लेकिन वे भी एक स्थायी और मजबूत शासन देने में विफल रहे. 2008 के बाद से नेपाल में कोई भी पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर पाई. मौजूदा संसद में भी निवर्तमान प्रधानमंत्री ओली की पार्टी के पास 285 में से केवल 78 सीटें थीं. इस बिखरी हुई राजनीति ने शासन को कमजोर बना दिया और भ्रष्टाचार को गहराने का मौका दिया.
गरीबी कम हुई, लेकिन प्रवासियों के सहारे
राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद नेपाल ने गरीबी उन्मूलन क्षेत्र में चौंकाने वाली सफलता हासिल की है. 1995 में जहां 55 फीसदी लोग अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा (2.15 डॉलर प्रतिदिन) से नीचे थे, वहीं 2023 तक यह घटकर सिर्फ 0.4 फीसदी रह गया. हालांकि, यह सफलता घरेलू आर्थिक विकास से नहीं, बल्कि प्रवासियों की कमाई और रेमेटेंस (Remittances) से आई है. आज नेपाल की जीडीपी का लगभग 30 फीसदी हिस्सा विदेशों से आने वाली रकम पर निर्भर है. हर चौथे घर से कोई न कोई सदस्य विदेश में काम करता है. यानी नेपाली समाज का बड़ा हिस्सा आज दुनिया के दूसरे देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर टिका हुआ है. यही कारण है कि सोशल मीडिया प्रतिबंध से गुस्सा और बढ़ा. यह न केवल युवा पीढ़ी की आवाज को रोकने की कोशिश थी, बल्कि विदेशों में काम कर रहे परिजनों से जुड़ाव के लिए एक सस्ता साधन भी छीन लिया गया.
नेपाल की अर्थव्यवस्था प्रवासियों पर निर्भर
- विश्व बैंक नेपाल की अर्थव्यवस्था को तीन चरणों में विभाजित करता है, जो इस प्रकार है:
- संघर्ष काल (1996-2006): माओवादी विद्रोह का दौर.
- संघर्षोत्तर काल (2007-2014): राजनीतिक पुनर्गठन का प्रयास.
- बार-बार आने वाले झटके (2015-2023): भूकंप, महामारी और राजनीतिक संकट.
इन सभी फेज में नेपाल की अर्थव्यवस्था ने अपने पड़ोसी देशों की तुलना में खराब प्रदर्शन किया है. हाई Remittances फ्लो ने फॉरेन करेंसी को मजबूत किया, लेकिन इससे निर्यात पर नकारात्मक असर पड़ा. प्रवासी जब वापस आते हैं तो उन्हें घरेलू अर्थव्यवस्था में फिर से बसना मुश्किल लगता है. इसका परिणाम यह है कि नेपाल की अर्थव्यवस्था दिखने में स्थिर लग सकती है, लेकिन यह भीतर से खोखली है. यह उस खदान की तरह है जो किसी भी वक्त फट सकती है और जेन ज़ेड विरोध प्रदर्शन उसी का संकेत हैं.
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